स्वतंत्र हिमाचल (जोगिन्दरनगर) अंकित कुमार
आजादी से पहले ही जो ( haulage trolley )ट्रॉली जोगिदरनगर को हिमाचल प्रदेश के अन्य कस्बों और शहरों से आगे छोड़ गई थी, उस ट्रॉली ने जोगिंदरनगर को विकास की दीड में पिछड़ते हुए देखा है जी हाँ इस बूढ़ी जर्जर ट्रॉली ने सुक्राटी को जोगिन्दरनगर बनते देखा है। इसने गावों को आबाद और खुद को बर्बाद होते हुए भी देखा है।
अगर ट्रॉली न होती तो कैसे पूरा हो पाता मंडी के राजा जोगिंदर सेन का सपना और ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बी. सी. बेट्टी का प्लान अगर यह तकनीक ही नहीं होती तो जोगिन्दरनगर तक ट्रेन लाकर भी क्या कर लेते अंग्रेज कैसे पहुंचात सामान बरोट तक कैसे बनता वहां जलाशय और कैसे पहाड़ी की चोटी के पास
सुरंग बन पाती ? अगर में ट्रॉली ( haulage trolley )न होती तो आज कौन जानता बरोट को और कौन जानता सुकाटी (तात्कालिक जोगिन्दरनगर) को
न पावर हाउस बनता, न उसके बहाने स्कूल खुलते न अस्पताल न आयुर्वेदिक फार्मसी होता। और तो और न ही छपरोट होता, न बस्सी शायद मंडी-पठानकोट हाइवे भी नहीं होता। शायद आज बरोट भी बड़ा मंगाल से कम न होता। लोग मंडी होते हुए कुल्लू चले जाते और तीर्थयात्री बैजनाथ तक ही आते और जागिदरनगर पिछड़ा और उपेक्षित रह जाता।
1925 में ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बी. सी. बेट्टी और मंडी के राजा जोगिदर सेन के बीच हाइड्रो प्लाट बनाने के लिए एग्रीमेंट हुआ और शानन पावर हाउस का सपना देखा गया। कमेल बेट्टी ने अपनी टीम के साथ सुक्राटी (तात्कालिक जोगिदरनगर) से लेकर पहाड़ों की गोद में बसे बरोट गाँव का दौरा करने के बाद निष्कर्ष निकाला की 1829 मीटर समुद्र तल से ऊँचाई वाले बरोट में प्रोजेक्ट के लिए जलाशय बनेगा और 1240 मीटर पर शानन गाँव में पहाड़ के दूसरी ओर पावर प्लांट होगा। डिजाइन तैयार था पर अगली चुनौती थी. प्रोजेक्ट के नीचे उतर जाती थी। लिए भारी मशीनरी को इन पहाड़ों पर लेकर आना और सबसे मुश्किल था बरोट जहाँ सड़क नाम की कोई बीज ही नहीं थी।
इस चुनौती से निपटने के लिए पठानकोट से जोगिंदरनगर के शानन गाँव तक मेरो गेज रेल ट्रैक के निर्माण का खाका तैयार हुआ और 1929 मे 164 km काँगड़ा घाटी रेल लाइन (पठानकोट-जोगिंदरनगर)
अस्तित्व में आई शानन गाँव तक तो रेल पहुँच गई पर बरोट तक उसी तरह का ट्रैक लेकर जाना सम्भव नहीं था फिर यातायात की दुनिया के दुर्लभ अपने पर काम किया गया और ( haulage trolley ) हॉलेज ट्रॉली कॉन्सेप्ट से शानन और बरोट को जोड़ने की कवायद शुरू हुई।
सीधे खड़े पहाड़ पर ट्रेन की तरह ट्रैक बिछाया गया जिस पर एक ट्रॉली चल सकती थी उस ट्रॉली को लोहे की रस्सियों के सहारे ऊपर खींचा जाता था, टॉप पर ट्रॉली को खींचने के लिए बकायदा पूरा सेटअप लगा होता था। पहाड़ के टॉप से अगले पड़ाव जहाँ थोड़ा प्लेन सफर रहता था यहाँ ट्रॉली इंजन के साथ जुड़कर चलती थी. फिर अगली उतराई उतरने के लिए उसी तरह लोहे की रस्सियों के सहारे इंजन छोड़कर
इस तरह के चार अलग अलग स्टेशन तैयार किए गए शानन पावर हाउस से विचगियर यया (यह ट्रॉली के कंट्रोल प्वाइट है) व जीरो बाइट से बरोट बॉ। इसी ट्रैक और ट्रॉली सुविधा से भारी मशीनरी को पहुंचाया गया और 1936 में शानन पावर हाउस में विद्युत उत्पादन शुरू हुआ देश आजाद हो गया पर शानन पावर हाउस और ये ट्रॉली सिस्टम आज भी पंजाब सरकार के पास है। कारण ये बताया गया कि जोगिन्दरनगर से आगे नहीं जा पा रही जबकि जोगिंदरनगर से शानन तक का रेलवे ट्रैक मात्र 2 किलोमीटर है। सरकार ने इस दो किलोमीटर रेलवे ट्रैक की हालत उस दौर में भी नहीं सुधारी जिस दौर में मंडी के सांसद रेल को लेह-लदाख पहुंचाने की बाते 99 वर्ष की लीज एग्रीमेंट जो मंडी के राजा जोगिदर सेन और ब्रिटिश सरकार के बीच हुई थी उस लीज में ब्रिटिश सरकार का मतलब पंजाब प्रोविस से था। 2024 में लीज खत्म होने पर ये प्लाट और इससे जुड़ी एतिहासिक सम्पत्ति हिमाचल को वापिस मिलेगी की या करते नहीं थकते थे। अन्य देनदारियों की तरह कानूनी झमेले में फंसी रहेगी ये तो भगवान ही जाने पर जिस तरह इस ट्रॉली ने खुद को होते देखा है वो दिखाता है हम अपनी ऐतिहासिक धरोहरों का कितना खयाल रखते हैं।
कभी 1975 तक बरोट तक जाने वाली यह ट्रॉली आज यदा कदा विच कैम्प तक जाती है। उससे आगे ट्रैक तो है पर धूल फाँक रहा है। अब 2024 में लीज खत्म होने पर क्या होगा ये देखना दिलचस्प होगा हिमाचल के हिस्से में यह आता है या नहीं
फिर भी उम्मीद करते हैं कि कर्नल बेड़ी के इस भागीरथी प्रयास के कालजयी निर्माण के यौवन के दिन फिर आएंगे। चर चर करती ट्रॉली शानन से बरोट तक शान से अपने सफर पर निकला करेगी। हालांकि इसकी उम्मीद बेहद कम ही है। इसका कारण है कि कभी शानन तक जाने वाली ट्रेन पिछले कई वर्षों से इसका महत्व नहीं समझा। और आजादी से पहले जो ट्रॉली हमें हिमाचल के अन्य कस्बों और शहरों से आगे छोड़ गई थी. वो अब हमें विकास की दौड़ में हुए देख रही है। हर रोज चढ़ती है ये शान से 18 नम्बर की चढ़ाई कि आज तो कुछ आगे बढ़ा होगा मेरा प्यारा जोगिदरनगर। मगर देखती है चोटी से कुछ सफेद हाथियों को जो खड़े है विकास के नाम पर कोने-कोने पर और फिर उतर आती है शाम को बिना निराश हुए। इस उम्मीद के साथ कि आज नहीं तो क्या कल पक्का कुछ अलग होगा साली से इसी उम्मीद में पहाड़ी उतर रही है ये ट्रॉली।
जो ट्रॉली हमारे लिए इतना कुछ कर गई अफसोस उसके लिए हम कुछ नहीं कर पाए। यह जागिदहनगर की ही नहीं पूरे हिमाचल, बल्कि भारत की विरासत है। पर अफसोस! बातें बहुतों ने को मगर किसी नेता ने इसका महत्व नहीं समझा।